एक बार की बात है। एक भूखी लोमड़ी बहुत देर से खाना ढूंढ़ रही थी। वह इधर-उधर भटकती रही, मगर उसे कुछ भी खाने को नहीं मिला। तेज़ धूप में थकी हुई वह एक बाग़ के पास पहुँची।
बाग़ की दीवार के ऊपर उसे एक अंगूरों की बेल दिखाई दी, जिसमें काले, रसीले और मीठे अंगूर लटक रहे थे। लोमड़ी की आँखों में चमक आ गई और उसके मुँह में पानी आ गया। उसने सोचा, “बस, अब भूख मिटेगी!”
वह अंगूरों तक पहुँचने के लिए उछलने लगी। एक बार, दो बार, तीन बार… लेकिन अंगूर ऊँचाई पर थे। वह जितना भी उछलती, अंगूरों तक नहीं पहुँच पाती। वह बार-बार कोशिश करती रही। हर बार असफल होने पर वह और ज्यादा थकती जा रही थी।
थोड़ी देर बाद वह थक गई और बैठ गई। अब उसे गुस्सा भी आ रहा था और शर्म भी। वह सोचने लगी – “शायद ये अंगूर वैसे भी खट्टे होंगे। अगर मीठे होते तो इतनी ऊँचाई पर क्यों लटकते? अच्छा ही हुआ जो नहीं मिले।”
ऐसा कहकर लोमड़ी वहाँ से चली गई, लेकिन असल में वह जानती थी कि अंगूर मीठे ही होंगे। पर वह अपनी असफलता को स्वीकार नहीं कर पाई और उसे छुपाने के लिए अंगूरों को ही बुरा कहने लगी।
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👉 सीख: जब हम किसी चीज को हासिल नहीं कर पाते, तो उसे बुरा कहना हमारी कमजोरी छुपाने का तरीका बन जाता है। असली बुद्धिमानी है – अपनी कमी को स्वीकार करके मेहनत से आगे बढ़ना।